जब मां आटा गूंथती थीतो सिर्फ अपने लिए ही नहीं,
सबके लिए गूंथती थी,
झींगुर दास के लिए भी !
मां जब झाड़ू देती थीतो सिर्फ घर आंगन ही नहीं,देहरी, दालान और
झींगुर दास वाला ओसारा भी बुहार देती थी।
मां जब बर्तन धोती थीतो सिर्फ अपना जूठन ही नही,
घर के सभी लोगों के जूठे बर्तन धोती थी
झींगुर दास के चाय पिए कप को भी !
यह सब करके मां का चेहराखिल उठता था
फूल की तरहजिसकी सुगंध पर सबका हक़ था
झींगुर दास का भी !
अब बहू आ गई है
बहू ने अपने घर में बाई को रख लिया है
वह झाड़ू, पोछा, चौका-बर्तन कर देती है
पर मां अपना घर आज भी बुहार रही है।*** ***
Friday, November 27, 2009
Thursday, November 26, 2009
Thursday, April 3, 2008
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